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शायद ही कोई ऐसा दिन हो ,जिस दिन अखबार में दो-चार हत्या और आत्म हत्या की खबरें न छपती हों, पहले भी ऐसी खबरें छपती थीं लेकिन इन दिनों जो ऐसी खबरें आ रहीं हैं उनमें ज्यातर में युवाओं की संख्या दिनों-दिन बढ़ती जा रही है.आत्महत्या करने वाले युवा अपने पिछे जो सुसाइड नोट छोड़ जाते हैं ,अधिकॉश में अपने माता-पिता से क्षमा-याचना के साथ उनके सपनों को पूरा न करने की नाकामी ही मुख्य कारण होती है. ऐसा लगता है कि मॉ-बाप की अनुचित अपेक्षा और उसका हर समय दबाव ही धीरे – धीरे युवाओं को अवसाद की तरफ ढ़केल देता है और इस मानसिक बीमारी की जानकारी नतो युवा न ही उसके दोस्त- मित्रों और न ही परिवार के किसी सदस्य को हो पाती है. जिस रफ्तार से आज के युवाओं की जीवन -शैली और सोंच बदल रही है, उसमें ठहर कर सोंचने के लिए कोई जगह नहीं है, सब कुछ फटाफट और अपनी मन मर्जी का ही होना चाहिए . विफलता पर सकारात्मक सोंच का अभाव और इसके कारण के रुप में फिर वही माता -पिता के पास अपने बच्चों को समझने व समझाने की फुर्सत ही नहीं. बाजारवाद के इस युग में अधिकॉश लोगों की गलत सोंच यह हो गयी है कि पैसे से ही सब कुछ हासिल किया जा सकता है.बच्चों की परवरिश और उसके पठन- पाठन को भी लोग धन का निवेश मान बैठे हैं.जिसमें लाभ का लक्ष्य सर्वोपरि होता है.जीवन के संदर्भ में अर्थ का क्रम कई सोपानों के बाद आता है और यह क्रम गड़बड़ होने की जड़ ही आज के युवाओं में बढ़ते अवसाद का प्रमुख कारण है.अफसोस इस बात का है कि इस मनोरोग के बारे में समाज की सोंच अभी भी उन्नीसवीं सदी वाली है.किसी के मन में क्या चल रहा है यह पता करना मुश्किल जरुर है, परन्तु किसी के व्यवहार, रहन -सहन, बोल-चाल और स्वभाविक आचरण में परिवर्तन की जानकारी प्रत्यक्ष हो जाती है . यही वह बिन्दु है जहॉ पर अगर सही परामर्श और उपचार हो जाय तो स्थितियॉ बदतर होने से बचा जा सकता है.इसके लिए जरुरी है कि भागम -भाग की जिन्दगी के बीच अपने लिए और अपनों के लिए समय निकाला जाय,वरना ऐसे हादसों में वृद्धि होती रहेगी.जहॉ तक युवाओं में हत्या करने जैसी बढ़ती प्रवृत्ति का प्रश्न है इसका भी शिकार ज्यादातर परिवार के लोग ही हो रहे हैं ,उसमें भी ज्यादातर मामलों में पत्नी, बच्चे और माता पिता ही ऐसी हत्याओं के शिकार बनते हैं और इन सबके पीछे जो कारण सामने आते हैं उनमें जिन्दगी की कशमकश ही प्रधान दिखती है.ऐसा कहने सोंचने वालों ने कि “पैसा खुदा तो नहीं ,पर खुदा से कम भी नहीं ” समाज में अर्थ को खुदा और जीवन से भी बड़ा बना दिया है.ऐसे ही गड़बड़ाते समीकरणों का गलत हल हमारे समाज में आत्म-हत्या और हत्या के रुप में सामने है.
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